हिन्दी यात्रा-वृत्तान्त और समाज

सारांश

पूरी दुनिया आज जहां खड़ी है उनमें विभिन्न विषयों व क्षेत्रों पर केन्द्रित यात्रा वृतान्त हमारे ज्ञान बर्द्धन और सामाजिक विकास के लिए धुरी का काम करती हैं। विभिन्न विषयों व क्षेत्रों की तरह ही साहित्य में भी यात्रा वृतान्त एक महत्वपूर्ण विधा के रुप में स्थापित हैं। लेकिन साहित्य का क्षेत्र समाज किसी निश्चित गतिविधि का क्षेत्र नहीं है। उसके आयाम इतने हैं जितने की साहित्यकार क्षमता रखते हैं। इसे असीमित कह सकते है। हर साहित्यिक यात्रा की  अपनी विशेषता होती है। साहित्यिक यात्राएं प्राकृतिक सौदर्यकेन्द्रित हो सकती है तो जन जीवन के व्यवहारों पर भी केन्द्रित हो सकती है। दरअसल साहित्य की किसी भी विधा  के विषयों व पात्रों एवं परिस्थितियों का निर्धारण तात्कालिक वजहों से भी होती है। समाज में चलने वाले विविध आंदोलनों का प्रभाव विषयों के निर्धारण पर स्वबाविक रुप से होता है।

बीज शब्द: यात्रा, साहित्य, विषय, क्षेत्र, ज्ञान

शोध आलेख                                                        

गति के नियमों की खोज विज्ञान की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। यह माना जाता है कि गति ही जीवन हैं। समाज ने गतिशीलता के विविध आयामों की पहचान की है जो कि अकादमिक स्तर पर विषय व क्षेत्र के रुप में परिभाषित होती है। राजनीतिक, इतिहास, सामाजिक विज्ञान आदि विषयों व क्षेत्रों में गतिशीलता का अध्ययन किया जाता है। इस गतिशीलता की पड़ताल और उन क्षेत्रों में गतियों को और विकसित करने के लिए संबंधित क्षेत्रों में शोध किए जाते हैं। शोध के अपने निश्चित नियम हैं। उनमें गति के ठहराव, उनके कारणों की खोज के बाद उन्हें और गतिवान बनाने के लिए शोधार्थी अपने अनुभवों व अनुभूतियों एवं कल्पनाओं को बतौर सुझाव पेश करते हैं। इस तरह से शोध की ही एक विधा यात्रा है। इसीलिए हम पाते हैं कि विभिन्न विषयों व क्षेत्रों के लिए  यात्राओं को बहुत महत्व दिया जाता है। महात्मा गांधी ने दांडी तक की यात्रा की। इस यात्रा ने भारतीय राजनीति के ठहराव को तोड़ा और राष्ट्र के भीतर  एक नई राजनीतिक उर्जा का संचार किया। अलबिरूनी ने भारत की यात्रा करके उसकी जटिलताओं और उस भूभाग में संभावनाओं की खोज अपनी यात्राओं के दौरान की। इस तरह हम यह पाते हैं कि पूरी दुनिया आज जहां खड़ी है उनमें विभिन्न विषयों व क्षेत्रों पर केन्द्रित यात्रा वृतान्त हमारे ज्ञान बर्द्धन और सामाजिक विकास के लिए धुरी का काम करती हैं।

विभिन्न विषयों व क्षेत्रों की तरह ही साहित्य में भी यात्रा वृतान्त एक महत्वपूर्ण विधा के रुप में स्थापित हैं। लेकिन साहित्य का क्षेत्र समाज किसी निश्चित गतिविधि का क्षेत्र नहीं है। उसके आयाम इतने हैं जितने की साहित्यकार क्षमता रखते हैं। इसे असीमित कह सकते है। हर साहित्यिक यात्रा की  अपनी विशेषता होती है। साहित्यिक यात्राएं प्राकृतिक सौदर्यकेन्द्रित हो सकती है तो जन जीवन के व्यवहारों पर भी केन्द्रित हो सकती है। दरअसल साहित्य की किसी भी विधा  के विषयों व पात्रों एवं परिस्थितियों का निर्धारण तात्कालिक वजहों से भी होती है। समाज में चलने वाले विविध आंदोलनों का प्रभाव विषयों के निर्धारण पर स्वबाविक रुप से होता है।

भारत में साहित्यक यात्राओं का समाज शास्त्रीय  अध्ययन का अभाव दिखता हैं। पिछली सदी के आखिरी वर्षों से समाज शास्त्रीय विषय भारतीय समाज में विमर्शों के केन्द्र में हैं। साहित्य के विभिन्न विधाओं को भी इस विमर्श ने गहरे स्तर पर प्रभावित किया हैं। लिहाजा साहित्य के क्षेत्र में यह शोध बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है कि साहित्यिक यात्राओं में समाज शास्त्रीय दृष्टिकोण पर आधारित साहित्य की उपलब्धता किस रुप में है और यदि हैं तो उसकी सीमाएं क्या हैं। हर साहित्य का एक सामाजिक सरोकार होता है और भारत जैसे विभिन्नताओं व विविधताओं वाले समाज के लिए यह महत्वपूर्ण होता है कि किसी भी साहित्यिक रचनाकर्म के सरोकार की सीमाएं कहां जाकर रुकती है। साहित्य यात्राएं साहित्य के क्षेत्र में सृजनात्मकता को विस्तार देती है, यह तो सही है लेकिन उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि साहित्यिक यात्राएं अन्य क्षेत्रों व विषयों के लिए भी खिड़कियां होती है। साहित्यिक यात्रा वृतांतों का समाज शास्त्रीय अध्ययन को एक नई पहल के रुप में देखा जा सकता हैं। 

इस प्रकार समाज और यात्रा-वृत्तान्त का घनिष्ठ सम्बन्ध है। यात्रा-वृत्तान्त में समाज किसी न किसी रूप में अवश्य प्रतिबिंबित होती है। इसलिए समाज के साथ यात्रा-वृत्त भी बदलता और विकसित होता है। किसी भी यात्रा-वृत्त को समझने के लिये उस समय के समाज को समझना आवश्यक होता है। जिस किसी भी यात्रा-वृत्तान्तकार का विषय जितना व्यापक होता है वह अपनी रचनाओं में भी उतनी ही विविधताओं से प्रकट होता है। यात्रा-वृत्तान्तकार एक सजग और संवेदनशील व्यक्ति होता है। इसलिए यात्रा-क्रम में उन्हें जितने प्रकार के अनुभव प्राप्त होते हैं वह अपनी यात्रा-वृत्तान्त में उन्हें शब्द देने का प्रयास करते हैं। यात्रा-वृत्तान्तकार का रचना भी उनके व्यक्तित्त्व के समान ही बहु आयामी है। इसलिए उनके यात्रा-वृत्तांत में जीवन के  कई मोड़ मिलते हैं।

यात्रा-वृत्तान्तकार ने समकालीन समाज की मान्यताओं  का अध्ययन बड़े ही स्वाभाविक रूप में किये हैं। इन मान्यताओं के कारण ही यात्रा-वृत्तान्तकार को लिखने की प्रेरणा मिली। इसी ने उनके ह्रदय में मानवता का झरना भी बहाया और वे समाज की भलाई के लिए कुछ सोचने-समझने और कुछ करने के लिए कदम –कदम पर आगे बढ़ते हुए दिखाई दिए।

हम पाते हैं कि यात्रा-वृत्तान्तकार कला की धनी होने के साथ-साथ समाजसेवी भी हैं। यात्रा-वृत्तान्त में भी उनका यह रूप उभर कर सामने आया है। लेखक के लिये यात्रा-वृत्त का प्रत्येक क्षण अमूल्य है। इसलिए गरीबों का जीवन भी यात्री के ह्रदय को द्रवित कर देता है। बड़ी कठिनाई से लेखक प्रतिदिन जीवन के कार्यों का और गरीबी का चित्रण करते हैं। अध्ययन बताते हैं कि लेखक को कितनी छोटी-छोटी बातें और चीजें रोक लेती है और अपनी तरफ खींचती है। और इन छोटी –छोटी बातों से उनकी सम्पूर्ण जीवन दृष्टि बनती है।

यात्रा-वृत्तान्तकार जीवन के विभिन्न पक्ष को संवेदित करते हैं। एक यात्रा-वृत्तान्तकार जो कुछ देखते–सुनते , ग्रहण करते हैं  सबका उन पर प्रभाव पड़ता है। उनके मन पर सबकी छाप पड़ती है। वह हर चोट से झंकृत होते हैं। उनकी कुछ न कुछ प्रतिक्रिया अवश्य होती है। वह दुखी होते हैं, खुश होते हैं , चिन्ता, भय, रोमांच आदि सब अनुभव उन्हें होती है। वह हँसते भी हैं। गुस्सा भी होते हैं। ये सारे भाव उनमें उत्पन्न होते हैं।यात्रा के संपर्क से उनमें जो कुछ घटित होता है उसे एक साथ व्यक्त करते हैं।

उनके यात्रा-वृत्तान्त में अनेक संवेदन मिलते हैं। जीवन के अनेक रूप और स्थितियाँ मिलती है। जैसे – नदी, पहाड़, मानव-जीवन, संघर्ष, आशा-निराशा सब कुछ यहाँ मिलता है। इनके यात्रा-वृत्तान्त में संवेदना के अनेक स्थल मिलते हैं। यही लेखक की श्रेष्ठता है। यही उनकी यात्रा-वृत्तान्त की शक्ति है।यात्रा-वृत्तान्तकार न तो सिर्फ समाजशास्त्री है न राजनीतिक लेखक बल्कि सम्पूर्ण जीवन के यात्री हैं।

यात्रा-वृत्तान्तकार की रचनाओं  में जीवन के प्रश्नों के साथ ही उनके समाधान की भी  अभिव्यक्ति हुई है। उनके यात्रा-वृत्तान्तों के अध्ययन को समझने के लिये उनके सामाजिक चिंतन को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। वे दुःख का केवल यात्रा चित्रण करके नहीं रह जाते हैं बल्कि उसके कारक का अध्ययन करते हुए उसके समाधान का मार्ग भी प्रस्तुत करने की कोशिश करते हैं। वे प्रश्न भी करते हैं  और इन प्रश्नों के उत्तर के लिये वे जीवट की तरह दुःख की तह में भी जाते हैं।

आगे विस्तार की यह स्थिति समाज और उसके समूचे परिवेश में रमते हुए देश और विश्व के व्यापक छोरों को स्पर्श करते है।यात्रा-वृत्तान्तकार केवल दुखी के प्रति सहानुभूति दिखा कर ही नहीं रह जाता बल्कि एक सामाजिक सरोकार से युक्त यात्रा-वृत्तान्तकार के रूप में पाठक के लिए मनुष्य के कर्म के रूप को प्रस्तुत करने की कोशिश करते हैं। यात्रा-वृत्तान्तकार ने यात्रा-वृत्तान्त का चित्रण करते समय बाहरी वातावरण, स्थान विशेष  और सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों का अध्ययन किया है। इसके अंतर्गत यात्रा-वृत्तान्तकार ने बाहरी चित्रण में व्यक्तियों की वेश-भूषा, कार्य-व्यवहार, नाम, रूप-रंग, भाव-भंगिमा, विचारों का आदान-प्रदान आदि का अध्ययन किया  है।रचनाकार ने इन सब बातों को बहुत सुन्दर ढ़ंग से व्यक्त किया है। इस प्रकार यात्रा-वृत्तान्तकार बाहरी यात्रा चित्रण का समाजशास्त्रीय अध्ययन निम्नांकित रूप में किये हैं। यात्रा-वृत्तान्तकार समाज के जिस जाति की प्रवृत्तियाँ, रहन-सहन  या स्वभाव के बारे में जानना चाहते हैं उसके सम्बन्ध में कुछ जानने का सबसे अच्छा अवसरस्थान विशेष यात्रा का होता है। जैसे – “ मालूम हुआ कि जिस होटल में हम ठहराए गए हैं वह पीकिंग के बढ़िया होटलों में दूसरे नंबर पर है। लेकिन इस दस मंज़िले होटल कि इमारत में या कि इसके कमरों में ऐसा कुछ भी नहीं जिसे भव्य कहा जा सके। बड़े होटलों में सर्वथा अभाव था। कर्मचारी मेहनती थे, विशेष प्रशिक्षित नहीं। पूछताछ करने पर पता चला कि चीन में होटल विद्या सीखने कि कोई समुचित व्यवस्था अभी तक नहीं रही है। होटल के अधिकतर कर्मचारी आठवीं, दसवीं तक पढे लिखे लड़के-लड़कियां थे।”1  लेखक आधुनिक शहरों के भी यात्री हैं। उनकी यात्राओं में आधुनिक सभ्यता और विज्ञान की देन के बीच बड़े शहर के युवाओं की स्थिति का सुंदर वर्णन किये हैं। जैसे – “भारत और चीन के युवक इंजीनियर अमेरिका में जो काम दो हजार डॉलर में आसानी से कर देते हैं वही अमेरिकी कंप्यूटर इंजीनियर कम-से-कम पाँच हजार डॉलर में मुश्किल से करेंगे। शारीरिक और बौद्धिक दोनों ही प्रकार के काम गरीब देशों के लोग सस्ते में कर देते हैं। इसका एक कारण तो यह भी है कि अमेरिकी युवकों की प्रवृत्ति प्रोद्योगिकी शिक्षा, गणित और भौतिकी आदि में नहीं हो रही है। भारतीय और चीनी युवक प्रोद्यौगिकी में उनसे ज्यादा कुशल हैं। इसी प्रकार गरीब देशों के अकुशल मजदूर उनकी तुलना में श्रमिक श्रम करते हैं। क्या इससे यह भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अति समृद्धि बच्चों को गैर जिम्मेदार और अकर्मण्य बनाती है बहरहाल, यह कहा जा सकता है कि अमेरिका जब तक स्वयं अपने देश में अकुशल और कुशल दोनों प्रकार के श्रम करने वालों की संख्या नहीं बढ़ाएगा, बाहर से जाने वालों को रोक नहीं पाएगा। चाहे वह इससे कितना भी परेशान क्यों न हो ?”2 

पिछले कुछ वर्षों में समाज की अवधारणा और लोकतन्त्र के प्रति चिंता ने यात्राओं में एक महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया है। तात्पर्य यह है कि आज दुनिया विकास के एक महत्त्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है। लेकिन यात्रा वृत्तान्तकार सामाजिक जीवन के विशेष पक्षों पर प्रकाश डालने की कोशिश कार रहे हैं।  प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘आकाश ऐसे खुलता है ! शीर्षक यात्रापरक संस्मरण से उद्धृत है। “ गुवाहाटी से चलकर मेघालय की ओर आने वाला मार्ग आदिवासियों की जीवनरेखा की तरह है। शहर पीछे छूटते ही जनजातियों की दुनिया आकार लेने लगती है। थोड़ी-थोड़ी दूर पर सड़क से फूटकर दायें-बाएँ की ऊँची-नीची पहाड़ियों में गुम हो जाने वाले सँकरे कच्चे रास्ते बरबस गाँवों की पतली पतली गलियों की याद दिला देते हैं। इन पहाड़ियों के उस पार, जहाँ तक विकासशील भारत का पहुँचना आज तक संभव नहीं हुआ है, आदिवासियों के गाँव बसे हुए हैं। पहाड़ियों की पीठ पर और निचली संकीर्ण घाटियों में बसी हुई इनकी दुनिया आज भी आधुनिकता की आहट से निपट अनजान और 21 वीं सदी के विश्व से न जाने कितनी दूर है।”3 

शायद कहने की आवश्यकता नहीं है कि यात्राओं की दुनिया में सबसे अहम विषय समाज का ही है।  इस प्रकार हम पाते हैं कि यात्रा वृत्तान्तकार किसी न किसी सामाजिक संदर्भ से जुड़े हुए होते हैं। आचार्य श्री काकासाहेब कालेलकर के शब्दों में, “ हम करसियांग, दार्जिलिंग और कालीमपोंग इन तीनों स्थानों से भेंट करने आये हैं। रात में कलकत्ता से निकले और सारी रात उत्तर की यात्रा करते हुए सबेरे सिलिगुड़ी आ पहुँचे। पार्वतीपुर रात में कब निकल गया, इसका कुछ पता भी नहीं चला। कलकत्ता से सिलिगुड़ी तक की मसाफिरी किसी भी ऋतु में आह्लाद दायक ही होती है। हरे भरे खेत, उनके बीच सिर ऊंचा करने वाले पेड़, संगमरमर के समान बादलों को प्रतिबिम्बित करने वाले जलाशय और उनके बीच अपनी सुघडता से सुहाने वाली झोपड़ियाँ सभी कुछ देखने वाले को प्रसन्न करते हैं। इस आद्र मुल्क में रहने वाले को तो यह आँखों के लिए बिछी हुई दावत के समान ही प्रतीत होता है।”4   

इस प्रकार यात्री एक समाजशास्त्रीय विचारक की तरह उस सामाजिक परिवेश के बारे में प्रतिक्रिया करते हैं जिसमें वह रहते हैं। यह परिवेश अंदरूनी और बाहरी दोनों तरह का होता है। अंदरूनी संदर्भ में उसकी पृष्ठभूमि और व्यक्तिगत सोच होती है। जबकि बाहरी संदर्भ में समाज के अस्तित्तव को बनाए रखने वाला सम्पूर्ण परिवेश होता है। इस प्रकार यात्रा वृत्तान्तकार की लेखनी बहुआयामी है। जिसमें उन्होने सामाजिक तथ्यों का अध्ययन किया है। वह अपने अध्ययन में व्यक्ति के बजाए समाज पर विशेष ज़ोर देते हैं और यह बताने की कोशिश करते हैं कि सामाजिक घटनाएँ ही व्यक्ति को प्रभावित करती है। इस तरह यात्रा वृत्तान्तकार समाजशास्त्रीय दृष्टि से सामाजिक वस्तुओं को देखने परखने का काम करते हैं। चाहे समाज में सामाजिक स्थिति की बात हो या राजनीतिक स्थिति की बात। इस प्रकार यात्रा वृत्तान्तकार समाज में केवल अग्रणी की भूमिका में रहते हैं।  यात्रा वृत्तान्तकार केवल ऐसी सच्चाई को खोजने की चेष्टा करते हैं जो यात्रा को प्रासंगिक बना सके और सामाजिक मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करके ऐसा बदलाव ला सके जिससे समाज के सभी हिस्सों को लाभ मिल सके। प्रस्तुत पंक्तियाँ नीलेश रघुवंशी द्वारा लिखित ‘यात्रा अजंता की’ नामक यात्रा-संस्मरण से ली गई है। “ अजंता की हर गुफा को देखकर उसकी बदहाली पर कुछ टूटता है भीतर ही भीतर बिना आवाज। ऐसे क्षण चट्टान के पिघलने और ढहने के क्षण होते हैं। यह बेआवाज रोना किसके लिए है – किस पर रोना है यह। अजंता… अजंता … अजंता … जब भी अखबार या टी. वी. पर खूबसूरत लुभावना वह विज्ञापन देखती हूँ जिसमें फोकस होता है “इनक्रेडिबल इंडिया”अद्भुत भारत, अतुल्य भारत – तब रोता है कोई मेरे भीतर। अजंता के शिल्प और चित्रों के अधमिटे बदरंग रंग रात भर सिसकते हैं मेरे संग। अद्भुत भारत की अतुलनीय विश्व धरोहर अजंता तुम्हें इतने बरसों बाद क्यों देखा मैंने। वो भी इस हाल में। काश मैं तुम्हें तुम्हारे चरम उत्कर्ष में देख पाती। एकदम चुप सन्नाटे को चीरते तुम्हारे मौन के साथ गुजार पाती कुछ दिन, कुछ रात।”5  इन यात्रा वृत्तान्तकारों में राहुल सांकृत्यायन के भी कई उदाहरण है। एक अन्य उदाहरण विलियम मूरक्रोफ्ट के ‘अलमोड़ा से टिहरी’ नामक यात्रा के अंश से –

“ हमलोग 12 दिसम्बर 1819 को अलमोड़ा से जोशीमठ पहुँचे। न कुली और न याक ही पर्याप्त संख्या में उपलब्ध थे। फिर यह पता चला कि नीती दर्रा भी पार करने लायक नहीं है। हमें दो सप्ताह पहले यहाँ आना चाहिए था। 21 दिसम्बर को हुणिये नीती दर्रे से तिब्बत वापस आ गये थे। मैंने प्रस्ताव रखा कि हम समान यहीं कुलियों के पास छोड़कर दर्रा पार करने का प्रयास करें। लेकिन कुलियों ने मना कर दिया और कहा कि हम नष्ट होने को तैयार नहीं हैं। अतः हमने दर्रा पार करने का इरादा त्याग दिया। तय किया कि या तो अगली गर्मी की शुरुआत तक यहीं रहें या लद्दाख की यात्रा करें।”6          

यात्रा वृत्तान्तकारों ने अंतर निर्भरता और अंतर संबद्धता पर भी ज़ोर दिया है। जिसमें यात्री स्थिति को सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं के रूप में एक साथ देखते हैं। उसमें उनकी विशेष रुचि रही है। इसमें उनके कार्य उल्लेखनीय है। इससे हमारे समाज में हो रहे सामाजिक परिवर्तन की प्रवृत्तियाँ का भी पता चलता है। इसलिए यात्रा वृत्तान्तकार परंपरा और आधुनिकता के विषयों पर भी ध्यान केन्द्रित करने की कोशिश करते हैं। जैसा कि हम अवगत हैं परंपरा और आधुनिकता को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता और दोनों एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। अध्ययन में पाते हैं कि जंगली इलाकों में रहने वाले और अपने सामाजिक जीवन के प्रत्येक पहलू में स्वतन्त्रता का जीवन बिताने वाले समाज आधुनिक विकास से कुल मिलाकर अछूते रहे हैं और आधुनिकीकरण का प्रभाव वहाँ कुछ खास कारणों से ही पहुंचा है। इन कारणों में वन और खनिज संसाधनों का दोहन ही शामिल है। अनिल यादव के शब्दों में, “एक आदिवासी ने कहा, “जिस दिन परेश बरुआ नहीं रहेगा इस इलाके में एक हवा अलग से आएगा।”7

 बाहरी दुनिया के संपर्क में आते ही वहाँ के लोगों को अपने अधिकारों और जमीन से हाथ धोना पड़ जाता है और वे एक नए और अजनबी सामाजिक परिवेश में जीने के लिए विवश हो जाते हैं। वहाँ के समाज पर आधुनिकीकरण का प्रभाव कई रूपों में पड़ा है। कुछ लोगों को आधुनिकीकरण से काफी लाभान्वित हुई है जबकि अधिकांश घाटे में रही हैं। इस तरह अनिल यादव समाज की बड़ी गंभीर समस्या पर कुछ इस तरह विचार कर रहे हैं। उनके ही शब्दों में,

“ देश के कुल उत्पादन का चौथाई हिस्सा असम के कुओं से निकाला जाता है। उसके बदले केन्द्र से मिलने वाली बहुत कम रॉयल्टी यहाँ की राजनीति का पुराना मुद्दा है। दिल्ली से चाय, तेल, कोयला ले जाती है बदले में सेना भेजती है – किसी भी दिल्ली विरोधी आंदोलन के आहवाहन का यह मंत्र है।”8   एक और उदाहरण

“एक और सरकारी योजना थी जिसमें रबड़ बोर्ड ने आदिवासियों की ज़मीनें सात साल के लिए लीज पर लेकर प्लांटटेशन किया था। यहाँ ज़मीनों के मालिक ही मजदूर थे जिन्हें प्लांटेशन और मार्केटिंग के हुनर सीख लेने के बाद बाकायदा एक प्रोसेसिंग यूनिट के उफार के साथ रबड़ इस्टेट वापस किए जाने थे। उस वक्त त्रिपुरा में करीब बीस हजार हेक्टेयर में रबड़ ईस्टेट थे और उत्पादन में केरल के बाद दूसरा नंबर हो चुका था। रबड़ बोर्ड ने सर्जिकल दस्ताने, सैडिल, टायर, रबड़ बैंड बनाने के कई प्रोजेक्ट तैयार किए थे जिनसे आगामी दिनों में उत्पादन होना था।… विजय हरांगखाल ने बताया, बहुत कम लोग जानते हैं कि देश का लगभग आधा शहद रबड़ के बगानों से पैदा होता है। रबड़ के फूलों पर मधुमक्खियाँ आती हैं। एक हेक्टेयर प्लांटेशन से औसतन दो कुंतल शहद तैयार होता है। रबड़ के फूलों पर बैठने वाली मधुमक्खियाँ के डंक झर तो नहीं जाते, मेरी इस जिज्ञासा पर वे देर तक हँसते रहे।”9

ध्यान देने की बात है कि केवल आधुनिकीकरण से समूची समाज में परिवर्तन नहीं आता है। कहने का तात्पर्य यह है कि सामाजिक परम्पराओं में इस प्रकार का गुणात्मक परिवर्तन नहीं आता है। लेकिन परंपरागत समाज में सामाजिक-धार्मिक आचार-व्यवहार का जारी रहना आवश्यक है। हमें यह समझना होगा की जो लोग आंदोलन के लिए सिर उठाते रहते हैं उन्हें तभी रोका जा सकता है जब आधुनिकीकरण या विकास के लाभों का समान वितरण किया जाये। क्योंकि आधुनिकता का स्वरूप किसी समाज के ऐतिहासिक अनुभवों के आधार पर भी निर्धारित होता है। शायद कहने की जरूरत नहीं है कि यात्रा में आधुनिकता आर्थिक रूप में अधिक दिखती है जबकि परंपरा सामाजिक रूप से कम दिखती है।                    

संदर्भ सूची

  1. मनोहर श्याम जोशी, क्या हाल हैं चीन के, पृष्ठ – 21
  2. तिवारी,विश्वनाथ प्रसाद, अमेरिका और यूरप में एक भारतीय मन,पृष्ठ-27
  3. प्रियंकर पालीवाल (संपादक),यात्राओं का जिक्र, पृष्ठ – 139 
  4. आचार्य श्रीकाकासाहेब  कालेलकर, पृष्ठ – 1 यात्रा का आनन्द.
  5. प्रियंकर पालीवाल (संपादक),यात्राओं का जिक्र, पृष्ठ –107
  6. शेखर पाठक (संपादक), पहाड़ -11, पृष्ठ – 26
  7. अनिल यादव, वह भी कोई देस है महराज, पृष्ठ -127
  8. वही, पृष्ठ -127
  9. वही, पृष्ठ -157-58