Vertical Scroll: अनुवाद


Chekhov


दो साल और सात महीने
पहले पैदा हुआ ग्रीषा नाम का एक छोटा और मोटा-सा लड़का अपनी आया के साथ बाहर गली
में घूम रहा है। उसके गले में मफ़लर है
, सिर पर बड़ी-सी टोपी
और पैरों में गर्म जूते। लेकिन इन कपड़ों में उसका दम घुट रहा है और उसे बेहद गर्मी
लग रही है। सूरज बड़ी तेजी से चमक रहा है और उसकी चमक सीधे आँखों में चुभ रही है।
ग्रीषा क़दम बढ़ाता चला जा रहा है। किसी भी नई चीज़ को देखकर वह उसकी तरफ़ बढ़ता है और
फिर बेहद अचरज से भर जाता है।
ग्रीषा ने बाहर की
दुनिया में पहली बार क़दम रखा है। अभी तक उसकी दुनिया सिर्फ़ चार कोनों वाले एक कमरे
तक ही सीमित थी
, जहाँ एक कोने में उसका खटोला पड़ा है और दूसरे कोने में उसकी आया का सन्दूक।
तीसरे कोने में एक कुरसी रखी हुई है और चौथे कोने में एक लैम्प जला करता है। उसके
खटोले के नीचे से टूटे हाथों वाली एक गुड़िया झलक रही थी। वहीं कोने में खटोले के
नीचे एक फटा हुआ ढोलनुमा खिलौना पड़ा हुआ है। आया के सन्दूक के पीछे भी तरह-तरह की
चीज़ें पड़ी हुई हैं जैसे धागे की एक रील
, कुछ उल्टे-सीधे काग़ज़, एक ढक्कनरहित डिब्बा और एक टूटा हुआ जोकर खिलौना।
ग्रीषा की दुनिया
अभी बेहद छोटी है। वह सिर्फ़ अपनी माँ
, अपनी आया और अपनी
बिल्ली को ही जानता है। माँ उसे गुड़िया जैसी लगती है और बिल्ली माँ के फ़र के कोट
जैसी। लेकिन माँ के कोट में न तो दुम ही है और न आँखें ही। ग्रीषा के कमरे का एक
दरवाज़ा भोजनकक्ष में खुलता है। इस कमरे में ग्रीषा की ऊँची-सी कुरसी रखी हुई है और
कमरे की दीवार पर एक घड़ी लगी हुई है
, जिसका पेण्डुलम हर
समय हिलता रहता है। कभी-कभी यह घड़ी घण्टे भी बजाती है। भोजनकक्ष के बराबर वाला कमरा
बैठक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है
, जिसमें लाल रंग की
आरामकुर्सियाँ पड़ी हुई हैं। बैठक में बिछे कालीन पर एक गहरा दाग दिखाई पड़ता है
, जिसके लिए ग्रीषा को आज भी डाँटा जाता है।
बैठक के बाद घर का
एक और कमरा है
, जिसमें ग्रीषा को घुसना मना है। उस कमरे में अक्सर पापा आते-जाते दिखाई
पड़ते हैं। पापा ग्रीषा के लिए एक पहेली ही हैं। उसकी माँ और आया तो उसकॊ कपड़े
पहनाती हैं
, खाना खिलाती हैं, उसको सुलाती हैं।
लेकिन ये पापा किसलिए होते हैं
, यह ग्रीषा को मालूम
नहीं है। ग्रीषा के लिए एक और पहेली हैं उसकी मौसी। वही मौसी
, जिसने उसे वह ढोल उपहार में दिया था, जो अब उसके खटोले के
नीचे फटा हुआ पड़ा है। यह मौसी कभी दिखाई देती है
, कभी लापता हो जाती
है। आख़िर ग़ायब कहाँ हो जाती है
? ग्रीषा पलंग के नीचे, सन्दूक के पीछे और सोफ़े के नीचे झाँककर देख चुका है, लेकिन मौसी उसे कहीं नहीं मिली।
इस नई दुनिया में
जहाँ सूरज की धूप आँखों को चुभ रही है
, इतनी ज़्यादा माँएँ
और मौसियाँ हैं कि पता नहीं वह किसकी गोद में जाए
? मगर सबसे अजीब हैं
घोड़े। ग्रीषा उनकी लम्बी-लम्बी टाँगों को देख रहा है और कुछ समझ नहीं पा रहा। वह
आया की ओर देखता है कि शायद वह उसे कुछ बताएगी। लेकिन आया भी चुप है।
अचानक क़दमों की भारी
और डरावनी आवाज़ सुनाई पड़ती है। सड़क पर लाल चेहरे वाले सिपाहियों का एक दस्ता दिखाई
देता है
, जो धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ रहा है। सिपाहियों के हाथों में तौलिए हैं। वे
शायद नहाकर लौटे हैं। ग्रीषा उन्हें देखकर डर गया और काँपने लगा। उसने आया की तरफ़
सवालिया निगाहों से देखा — कहीं कोई खतरा तो नहीं है
? लेकिन आया नहीं डरी
थी। ग्रीषा ने सिपाहियों को आँखों ही आँखों में विदा किया और उन्हीं की तरह क़दमताल
करने लगा। सड़क के उस पार लम्बी थूथनों वाली कुछ बिल्लियाँ इधर-उधर भाग रही हैं।
उनकी जबानें बाहर निकली हुई हैं और पूँछें ऊपर की तरफ़ खड़ी हुई हैं। ग्रीषा सोचता
है कि उसे भी भागना चाहिए और वह बिल्लियों के पीछे-पीछे बढ़ने लगता है।
रूको, ग्रीषा रुको। — तभी आया ने चीख़कर कहा और उसे कन्धों पर से पकड़ लिया —
कहाँ जा रहे हो
? बड़ी शरारत करते हो।
वहीं सड़क पर एक औरत
टोकरी में सन्तरे लेकर बैठी हुई थी। उसके पास से गुज़रते हुए ग्रीषा ने चुपचाप एक
सन्तरा उठा लिया। — यह क्या बदतमीज़ी है
? — आया ने चिल्लाकर कहा
और सन्तरा उससे छीन लिया — तुमने यह सन्तरा क्यों उठाया
?
तभी ग्रीषा की नज़र
काँच के एक टुकड़े पर पड़ी
, जो जलती हुई
मोमबत्ती की तरह चमक रहा था। वह उस काँच को भी उठाना चाहता था
, मगर डर रहा था कि उसे फिर से डाँट पड़ सकती है।
नमस्कार, बहन जी। अचानक ग्रीषा को कोई भारी आवाज़ सुनाई पड़ी। उसने देखा कि भारी
डील-डौल वाला एक आदमी उनकी तरफ़ आ रहा था
, जिसके कोट के बटन
चमक रहे थे। उस आदमी ने पास आकर आया से हाथ मिलाया और वहीं खड़ा होकर उससे बातें
करने लगा। ग्रीषा की ख़ुशी का कोई पारावार नहीं था। सूरज की धूप
, बग्घियों का शोर, घोड़ों के दौड़ने की
आवाज़ें और चमकदार बटन — यह सब देखकर वह बेहद ख़ुश था। ये सब दृश्य ग्रीषा के लिए
नए थे और उसका मन ख़ुशी से भर गया था। वह ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा था।
चलो ! चल्लो ! — उस
चमकदार बटनवाले आदमी के कोट का एक पल्ला पकड़कर ग्रीषा चिल्लाया।
कहाँ चलें? — उस आदमी ने पूछा।
चल्लो ! — ग्रीषा
ने फिर ज़ोर से कहा। वह कहना चाहता था कि कितना अच्छा हो अगर हम अपने साथ माँ
, पापा और बिल्ली को भी ले लें। मगर वह अभी अच्छी तरह से बोलना नहीं जानता
था।
कुछ देर बाद आया
ग्रीषा को लेकर गली से एक इमारत के अहाते में मुड़ी। अहाते में बर्फ़ अभी भी पड़ी हुई
थी। चमकदार बटनों वाला वह आदमी भी उनके पीछे-पीछे चल रहा था। बर्फ़ के ढेरों और
अहाते में जमा हो गए पानी के चहबच्चों को बड़े ध्यान से पार करते हुए वे इमारत की
गन्दी और अन्धेरी सीढ़ियों पर चढ़कर ऊपर एक कमरे में पहुँच गए।
कमरे में धुआँ भरा
हुआ था। कोई चीज़ तली जा रही थी। ग्रीषा ने देखा कि अँगीठी के पास खड़ी एक औरत
टिक्के बना रही है। ग्रीषा की आया ने उस रसोईदारिन का अभिवादन किया फिर पास ही पड़ी
बेंच पर बैठ गई। दोनों औरतें कुछ बातचीत करने लगीं। गरम कपड़ों से लदे ग्रीषा को
गरमी लगने लगी। उसने अपने आस-पास देखा और सोचा कि इतनी गरमी क्यों है। फिर कुछ देर
वह रसोईघर की काली हो गई छत को ताकता रहा और फिर अँगीठी की तरफ़ देखने लगा।
अम्माँ — उसने कहा।
अरे…अरे…रुको भई
! — आया ने चीख़कर उससे कहा — ज़रा इन्तज़ार करो !
तब तक रसोईदारिन ने
शराब की एक बोतल और तीन जाम समोसों से भरी प्लेट के साथ मेज़ पर रख दिए। दोनों
औरतों और चमकदार बटनों वाले आदमी ने अपने-अपने जाम उठाकर टकराए और वे उन्हें पीने
लगे। उसके बाद उस आदमी ने आया और रसोईदारिन को गले से लगा लिया। फिर तीनों धीमी
आवाज़ में कोई गीत गाने लगे।
ग्रीषा ने अपना एक
हाथ समोसों की प्लेट की तरफ़ बढ़ाया। आया ने एक समोसा तोड़कर उसका एक टुकड़ा ग्रीषा को
पकड़ा दिया। ग्रीषा समोसा खाने लगा। तभी उसने देखा कि आया तो कुछ पी भी रही है। उसे
भी प्यास लग आती है। रसोईदारिन अपने जाम से उसे एक घूँट भरने देती है। घूँट भरने
के बाद वह बुरा-सा मुँह बनाता है और घूर-घूरकर सबकी ओर देखने लगता है। फिर वह धीरे
से खाँसता है और ज़ोर-ज़ोर से अपने हाथ हिलाने लगता है। रसोईदारिन उसे देखकर हँसने
लगती है।
वापिस अपने घर लौटकर
ग्रीषा अपनी माँ को
, दीवारों को और अपने खटोले को यह बताने
लगता है कि आज वह कहाँ-कहाँ गया था और उसने क्या-क्या देखा। इसके लिए वह सिर्फ़
अपनी जबान का ही इस्तेमाल नहीं करता
, बल्कि अपने चेहरे के
भावों और हाथों का भी इस्तेमाल करता है। वह दिखाता है कि सूरज कैसे चमक रहा था
, घोड़े कैसे भाग रहे थे, अँगीठी कैसे जल रही
थी और रसोईदारिन कैसे पी रही थी।
फिर शाम को उसे नींद
नहीं आती। लाल चेहरे वाले सिपाही
, बड़ी-बड़ी बिल्लियाँ, घोड़े, काँच का वह चमकता हुआ टुकड़ा, सन्तरे वाली औरत, सन्तरों की टोकरी, चमकदार बटन… ये
सभी चीज़ें उसके दिमाग में चक्कर काट रही हैं। वह करवटें बदलने लगता है और अपने
खटोले पर ही एक कोने से दूसरे कोने की ओर लुढ़कने लगता है… और आख़िरकार अपनी
उत्तेजना बरदाश्त न कर पाने के कारण रोने लगता है।
अरे, तुझे तो बुख़ार है! — माँ उसके माथे को छूकर कहती है — यह बुख़ार कैसे हो
गया
?
अँगीठी… ग्रीषा रो
रहा है और चीख़ रहा है — जा…जा… अँगीठी…भाग !

शायद इसने आज ज़रूरत
से ज़्यादा खा लिया है
, माँ सोचती है और ग्रीषा को, जो नए दृश्यों के प्रभाव से उत्तेजित था, दवा पिलाने लगती है।