साक्षात्कार
भोला नाथ सिंह
फुटलाही, पत्रालय- बिजुलिया
चास, बोकारो- 827013
झारखण्ड
मोबाइल नंबर -09304413016.
स्कूल मोड़ पर घंटा भर से अधिक खड़ा रहने के कारण सागर खिन्न हो उठा था। सवारी गाड़ी के रूप में ट्रेकर मिलते हैं पर जब तक वे ठसाठस भर न जाएँ तब तक टसकने का नाम ही नहीं लेते। अधिकतर वाहन मालिक चालक भी थे। सवारी लाख उकता ले उनकी बला से। किसी का काम हर्ज हो या गाड़ी छूटे, उनके बाप का क्या ? कहने पर टका सा ज़वाब दे देते – ‘खाली गाड़ी लेकर जाएँ क्या ?’ ऊपर से बेहिसाब खर्च और बचत न होने का रोना जबकि छत पर भी सवारियों को सामान की तरह लादे चलते हैं। जान जोखिम में होती है सो अलग।
‘काश ! कोई परिचित मोटरसाइकिल वाला मिल जाता’, सागर सोचता और कुढ़ता रहा लेकिन समस्या का निदान न हो सका। अंत में पुराने ट्रेकर में ठूंसा , घरघराहट को झेलता, गड्ढों में हिचकोले खाता वह गणेशी के हवाले चल पड़ा। साक्षात्कार के लिए उसे दस बजे का समय दिया गया था और नौ बज चुके थे। अभी आधी ही दूरी तय कर पाया था। योधाडीह मोड़ से चास बाज़ार और फिर कॉलेज, पहुँचने में काफी समय लगेगा। ख़ैरियत है कि कॉलेज मार्ग में गाड़ियों की आवाजाही अधिक है। अन्यथा चास से पंद्रह किलोमीटर की दूरी तय करने में ही उसे घंटा भर लग जाता।
योधाडीह मोड़ पहुँचकर उसने गणेशी को पाँच का नोट थमाया तो गणेशी ने नोट वापस उसकी हथेली पर पटकते हुए कहा, “ये क्या दे रहे हैं ? सात रुपए निकालिए।”
“क्यों भाई ? भाड़ा तो पाँच ही रुपए है ना ?” वह गणेशी के व्यवहार से हतप्रभ था।
“वह कल तक था आज़ नहीं। डीजल के दाम बढ़े इसलिए भाड़ा भी बढ़ गया। अब सात रुपए लगेंगे”, कहते हुए गणेशी ने आँखें तरेरीं।
सरकारी खोपड़ी में मस्तिष्क होता है या नहीं, पता नहीं। पेट्रोलियम के दाम बढ़ाने में उन्हें मज़ा आता है शायद। डीजल की कीमत लीटर प्रति तीन रुपए बढ़े या दो रुपए, भाड़ा में बीस से चालीस फीसदी वृद्धि हो जाती है। बीच में कीमत एक रुपया घट भी गया तो भी भाड़ा घटने से रहा। चावल, दाल, आटा से लेकर अन्य सभी आवश्यक वस्तुओं की कीमतें बरसाती बेलों की तरह लपलपाती बढ़ती चली जाती हैं।मोटी तनख़्वाह पाने वाले सरकारी कर्मचारियों को क्या ? फ़ैसले उनके और मार आम जनता पर। वे तो आठवें-दसवें वेतन आयोग के लिए हड़ताल कर बैठेंगे। बीस से पचास हजार की माँग हो जाएगी। देर-सवेर मिल भी जाएगा पर नब्बे प्रतिशत जनता महंगाई की मार झेलती असमय बूढ़ी हो जाएगी। सरकार के पास रोज़गार है न कोई अन्य विकल्प। है तो सिर्फ महंगाई और भ्रष्टाचार। ज़ेबकतरे की तरह गरीबों के ज़ेब को भी नहीं बख़्शती। जोंक, मच्छर और खटमल की तरह बिना मोह और लगाव के सिर्फ चूसना जानती है।
ज़ेब में जितने पैसे थे नए भाड़ा दर के लिए नाकाफी थे। कॉलेज तक जाकर लौटना भी था। ऐसे में वह पेट के लिए दो दाने का भी कहीं जुगाड़ बिठा नहीं पाता। सुबह सात बजे ही घर से निकला था। झिकझिक करना उसे अच्छा नहीं लगता पर करना पड़ा।
उसने कहा, “क्यों भाई ? डीजल की कीमत तीन रुपए बढ़ी, फिर सरकार ने एक रुपया दस पैसे कम कर दिया। लगभग दो रुपए प्रति लीटर बढ़ी और पूरे रास्ते को तय करने में तुम्हें मुश्किल से दो लीटर खर्च करने पड़ते हैं। चार रुपए खर्च में वृद्धि हुई और वसूलते हो पचास रुपए। पच्चीस से कम सवारी तो ऊपर-नीचे लाद लाते नहीं।”
“सुनो भाई, नेतागिरी की दरकार नहीं। और भी दूसरी चीजों की कीमतें बढ़ीं हैं। दिन भर में एक ही ट्रीप लगता है। लाखों की पूंजी लगी है। दो-चार सौ रुपए भी नहीं बचा तो क्या ख़ाक बिजनेस चलेगा ? रार मौलने की क्या तुक है ? भाड़ा दो और अपना रास्ता नापो”, गणेशी का स्वर कर्कश हो उठा था।
सागर जानता था कि बहस से फ़ायदा नहीं होने वाला। वक्त की ताकीद है कि वह भाड़ा चुकाकर चलता बने। एक तो दूसरी सवारी साथ देने वाली नहीं तिसपर सरकारी अधिकारी चिरनिंद्रा में रंगीन स्वप्न ही देखते रहते हैं। उनकी कुंभकर्णी नींद टूटने से तो रही।
इस बहस से वह अन्यमनस्क सा हो गया था। यह तो गनीमत थी कि प्रमाणपत्रों की छायाप्रति पहले ही करवा रखा था अन्यथा वहाँ भी डीजल की कीमत के नाम पर अधिक खर्चने पड़ते या झिकझिक करनी पड़ती।
योधाडीह मोड़ से चास बाज़ार तक एक मील उसे पैदल ही जाना पड़ा। फिर कॉलेज मार्ग की गाड़ी पकड़ झटपट चल पड़ा। पौने दस होने को थे। गर्मी प्रारंभ हो चुकी थी। सवा दस के करीब वह कॉलेज पहुँच चुका था। देखा कुछेक प्रतिभागी उपस्थित हो चुके थे। कुछ आ ही रहे थे। बैठने के लिए एक तंबू तान दिया गया था। कुछ कुर्सियाँ बिछी हुई थीं। वह भी जाकर बैठ गया।
आस-पास बैठे सभी प्रतिभागी एक ही बात को लेकर चिंतित थे कि पगार कितनी मिलेगी। चूंकि विज्ञापन में किसी प्रकार का उल्लेख नहीं था इसलिए संशय की स्थिति बनी हुई थी। सभी इसकी जानकारी पाने को बेचैन थे।
सामने थे उत्तर प्रदेश से आए हुए एक सज्जन, जो हर शब्द को चबा-चबाकर बोल रहे थे। ‘हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास’ पर गहन दृष्टि जमाए बार-बार बालों पर हाथ फेरते थे। उनके दो-चार परिचित पहले से ही उस महाविद्यालय में मौजूद थे। उनसे बतियाते रहे तो सबों को यह सुबहा हुआ कि इनकी नौकरी तो पक्की समझो। इनकी पहुँच बहुत दूर… तक है। उसी प्रदेश से एक अधेड़ महिला भी पधारीं थी जिनके पास उपाधि के अलावे मान-पत्रों, प्रशस्ति-पत्रों का पिटारा भरा हुआ था। एक कम उम्र बाला घबराहट में सिकुड़ी जा रही थी। रह-रहकर उसका व्यवहार असामान्य हो उठता था। ‘पता नहीं कैसे ज़वाब दूँगी ? मैं तो बोल ही नहीं पाऊँगी’, कहती हुई बार-बार पानी पी रही थी।
साक्षात्कार समिति की ओर से पानी की व्यवस्था थी। जितना चाहें पानी पी सकते हैं। तीन सौ रुपए का माँग-पत्र (डिमांड ड्राफ्ट) बाकायदा जमा करना पड़ा था। सागर जैसे बेरोज़गार के लिए अखर गया था। ऊपर से बैंक का कमीशन और समय का खर्च अलग। सुदूर गांव का निवासी असुविधाओं का मारा होता है।
बगल में राँची से आए हुए एक सज्जन बैठे थे। सौहार्द्रपूर्ण माहौल में बातें कर रहे थे। उनसे मिलने उनकी महिला मित्र आई हुई थीं जो सबके आकर्षण का केंद्र बनी हुई थीं। इनसे भी अधिक एक अन्य महिला प्रतिभागी ध्यान आकृष्ट कर रही थी जिनका शृंगार बड़ा अद्भुत था। पल्लू में घुंघरू टँके हुए थे। जब वे चलतीं तो छुन-छुन का संगीत लहरा उठता था। इतना सबकुछ होते हुए भी हर मस्तिष्क में एक ही प्रश्न उमड़-घुमड़ रहा था कि पगार कितनी होगी।
एक सज्जन जो संभवतः आस-पास के रहने वाले थे, बता रहे थे -‘दो हजार रुपए से अधिक नहीं मिलता किसी को यहाँ। वह भी देर-सवेर। सचिव की कृपा से यदा-कदा कुछ मिल जाता है। अन्यथा आमदनी ही क्या है ?’
सागर मन-ही-मन जोड़ने लगा -‘आने-जाने का किराया ही चालिस रुपए। चाय-पानी के दस भी रख दूँ तो कुल पचास प्रतिदिन। बचेगा क्या ? ऊपर से आने-जाने में अतिरिक्त समय। लगता है कोई लाभ नहीं होगा।’
उसे याद आया जब वह बैंक में ड्राफ्ट बनवा रहा था। खाजाँची ने प्रपत्र देखकर कहा था -‘वहाँ का वेतन रामभरोसे। मैं तो कहता हूँ कि ऐसे कॉलेज में पढ़ाने से बेहतर है पकौड़ियाँ बेचना।’
वह आहत हो गया था। भला पकौड़ी बेचने और पढ़ाने में समानता कहाँ है ? माना उसमें पैसे अधिक मिल जाते हैं परन्तु शिक्षण से उसकी तुलना उचित नहीं। चाहे वह वहाँ काम करे या न करे। एक चपरासी को बुलाकर पूछा, “भाई, वेतन कितना मिलता है यहाँ के शिक्षकों को ?”
“साहब, रहने भी दीजिए। सुनेंगे तो भाग खड़े होंगे”, कहकर वह टाल गया था।
एक अन्य कर्मचारी से पूछा तो उसने गोल-मटोल ज़वाब दिया, “वह तो पता चल ही जाएगा। अच्छा ही है….।” उसके ज़वाब के अंदाज़ ने रहस्य को और गहरा दिया। वैसे भी सागर को भान हो ही गया था। उसका मन अब व्याकुल हो उठा था। आकर्षण बिल्कुल समाप्त हो गया था।
एक ही समिति साक्षात्कार ले रही थी। पहले वाणिज्य वाले गए। फिर विज्ञान वाले विषयवार। अंत में कला संकाय के विभिन्न विषयों की बारी आई। ढाई बजे हिन्दी वालों को समय मिला। इस बीच प्यास बुझाने को पानी ही मिला जो अब गर्म हो चुका था। अंतड़ियाँ भूख से कुलबुलाने लगी थीं। उत्साह जैसा कुछ रहा ही नहीं। बेरोज़गार युवकों में साक्षात्कार के प्रति उमंग दूध में उफान की तरह उठता है और आवेग में बहता चला जाता है। अंत में पता चलता है कि सारा दूध ही बिला गया है। शीतल जल के छींटे मारने वाला कोई होता ही नहीं वहाँ।
ख़ैर जो भी हो, जल्दी से निबटा कर घर लौटना था। देर हुई तो गाड़ी नहीं मिलेगी। ग्रामीण क्षेत्र के उसके इलाके में शाम पाँच बजे के बाद गाड़ी मिलनी मुश्किल हो जाती है।
चार-पाँच प्रतिभागी थे हिन्दी के। उन्हें बरामदे में अलग बिठा दिया गया। भीतर कमरे में समिति के सदस्य आपस में बातें कर रहे थे। उनके ठठाकर हँसने की आवाज़ें आ रही थीं। सचिव भी साक्षात्कार ले रहे हैं। विश्वविद्यालय से कोई प्रतिनिधि पधारे हैं। एक-दो विषय विशेष के विशेषज्ञ। अन्य सबकुछ पूर्ववत। तभी किसी की आवाज़ आई, “भोजन तैयार हो गया है, खा लिया जाए फिर बैठते हैं।”
सभी सदस्य एकमत होकर चले गए। उम्मीदवारों को कहा गया कि पंद्रह मिनट इंतज़ार करें। बाध्यता थी, करनी ही पड़ेगी। भोजन भी भला पंद्रह मिनट में ! आधा घंटा से ऊपर चला गया। फिर पान-सुपारी में पाँच मिनट। इसके बाद ही सदस्य गण पधारे। एक-एक कर बुलाया जाने लगा। महज़ पाँच मिनट, चार मिनट …. की पूछताछ और उम्मीदवार बाहर।
एक से पूछा गया, “किसी प्रतिष्ठित साहित्यकार का नाम बताएँ जो विदेश यात्रा पर भी गए हैं।”
अधेड़ महिला भीतर गई फिर तुरंत बाहर निकल अपने पति को बुलाने लगी। जैसा कि सावधानी या अज्ञता के लिए लोग करते हैं, सागर ने उनसे पूछा, “क्या-क्या पूछा गया आपसे ?”
“कुछ भी नहीं। मेरे प्रमाणपत्र और मान-पत्र देखकर ही उन्होंने पूछना छोड़ दिया। कहा- आपकी नौकरी पक्की। बस वेतन तीन हजार ही मिल सकता है। अपने पति से पूछ लें। अभी आप जहाँ कार्यरत हैं वहाँ छोड़कर आना चाहेंगी ?”
सागर की बारी आई। वह भीतर गया। शालीनता से अभिवादन किया। नाम, पता, योग्यता, उत्तीर्णता वर्ष जैसे सामान्य प्रश्नों के बाद पीएचडी करने की इच्छा और विषय के संबंध में पूछा गया। सागर ने बताया, “इच्छा तो है। विषय मैं यथार्थवादी कहानियों के संदर्भ में रखना चाहता हूँ।”
“आपने नए लेखकों को पढ़ा है ? अमुक, फलाना, ……. आदि को ?”
“हाँ, अमुक की एकाध रचनाएँ ….।”
“कौन सी ?”
“शीर्षक याद नहीं।” उसने अनेकों लेखकों को पढ़ा था। पढ़ भी रहा था। नाम सबका याद रख पाना मुश्किल था। प्रसंगानुकूल हो तो स्मरण कर ले। अभी आवश्यकता महसूस नहीं हुई थी।
“नहीं, आपने नहीं पढ़ा है। ” सचिव के इस कथन से वह तिलमिला उठा था। कितनी अभद्रता है इनकी वाणी में ? परंतु उसने स्वयं को संयमित ही रखा।
“आप जब पढ़ाएँगे, तब आपको इनके उदाहरण देने होंगे। ऐसा नहीं हो सकता कि आप किसी लेखक को पढ़ा रहे हों और दूसरे का उदाहरण न आए।”
सागर को लगा कि वह कह दे -‘एक बेरोज़गार व्यक्ति किताबों पर दो सौ खर्च करेगा या परिवार के लिए राशन की व्यवस्था ? बच्चे भूखे बिलख रहे होंगे तो किताब चबाकर पेट नहीं भर पाएँगे। पेट भरा हो तो ही कुछ खर्च कर पाना संभव है। उसे भी नौकरी मिले, अच्छी पगार मिले फिर उसका पढ़ने का जुनून बढ़ जाएगा। किताबी कीड़ा तो वह है ही। पढ़ा भी अनेकों को है पर रोजी के लिए गणित के सूत्र रटने पड़ते हैं, विज्ञान के समीकरणों में उलझना पड़ता है। साहित्य और संगीत का आनंद दूर होता चला जाता है।’
वह प्रेमचंद और गोर्की की समानता या तुलना के माध्यम से अध्यापन का पक्षधर नहीं। वह मानता है प्रत्येक साहित्यकार अपनी कृति में जीता है, मरता है। कहीं-न-कहीं वह स्वयं उस कृति में मौजूद रहता है। उसका अनुभव, उसके विचार शब्द सूत्रों में पिरोए होते हैं। सबकी अपनी सीमाएँ हैं, प्राथमिकताएँ हैं, अपने उद्देश्य हैं। हाँ, कहीं-कहीं वे प्रेरित या प्रभावित हो सकते हैं दूसरों से। पर ऐसे में मौलिकता की हत्या होती है। वह साहित्य की ‘वाद परंपरा’ और दलबंदी से नफ़रत करता है परंतु मज़बूर है। जहाँ तुलनात्मक अध्ययन-अध्यापन की बात हो, उसे अलग नज़रिए से देखा जाना चाहिए। आलोचना का एक सीमित क्षेत्र है। प्रत्येक कृति की अपनी विचारधारा हो सकती है और वही उसकी आत्मा होती है। कृति उसी आत्मा में जीती है।
“तो फिर आप कैसे पढ़ाएँगें ?”
“विषय या प्रसंगानुसार उदाहरण भी दूँगा। पाठ्यक्रम के अनुसार पढ़ाऊँगा। तुलना सिर्फ आलोचना के समय ही अपेक्षित है।”
उसकी आवाज़ भूख से भीतर खिंच रही थी। शायद बोलने का मन नहीं कर रहा था। हालांकि जिन लेखकों के नाम गिनाए गए थे, वे न तो चर्चित थे और न ही उनकी कोई रचना पाठ्यक्रम में शामिल थी। ऐसे तो हज़ारों लेखक हैं। सभी को सब कहाँ पढ़ पाते हैं ? क्षमता का आकलन इन्हीं प्रश्नों से संभव नहीं। साक्षात्कार के लिए वातावरण और स्थिति को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।
“छोड़िए…. छोड़िए ……”, सचिव ने अन्य सदस्यों से कहा।
पाठ्यक्रम पर न तो कोई प्रश्न पूछा गया न ही साहित्यिक उपल्ब्धि पर। वह जिन विषयों की संभावना कर रहा था यहाँ उनकी चर्चा ही नहीं हो रही थी। प्रश्न लीक से हटकर थे। भूखे पेट और मरोड़ खाती अंतड़ियों ने आवाज़ को पकड़ लिया था। ऐसे में ‘कामायनी’ या ‘रश्मिबंध’ का कोई पाठ करने कहे तो नहीं सुहाता है। साक्षात्कार के लिए जिस वातावरण की आवश्यकता होती है उसका सर्वथा अभाव था।
घंटी बजते ही सागर ने धन्यवाद कहा और अपना रास्ता पकड़ा। झटपट गाड़ी पकड़ वह घर लौट चला। पगार की बात उससे पूछी ही नहीं गई अन्यथा शायद उसके ज़वाब को अशिष्टतापूर्ण आचरण में शामिल कर लिया जाता। अधिकारी कुछ भी बोलें सहना पड़ता है। बेरोज़गारी सबसे बड़ा अभिशाप जो ठहरी।
दिन भर थकान, भूख और क्लांति को झेलता वह रात को ही घर लौट पाया था। आते ही झोल खाट पर निढाल हो गया था जैसे शरीर में जान ही न बची हो। प्रमाणपत्रों की फाइल अब भी हाथ में ही थी।