हिंदी लघुकथा का समकालीन परिदृश्य वाया कमल चोपड़ा
चेतन विष्णु रवेलिया
शोधार्थी, स्नातकोत्तर हिंदी विभाग,
न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त)
ईमेल : chetanraweliya4431@gmail.com
मो: 8788679877
सारांश
हिंदी साहित्य में सर्वथा नवीन कथा विधा लघुकथा रूप रचना की दृष्टी से है तो अदनी सी लेकिन अपने सूक्ष्म और प्रभावकारी कथ्यों, सीमित किंतु सटीक शब्दों, सारगर्भितता, प्रभावी और तीक्ष्ण संवादों के कारण आज साहित्य के केंद्र में आ गई है। इसमें कोई संदेह नहीं कि वर्तमान हिंदी लघुकथा को यह रूप बहुत मशक्कत के पश्चात ही हासिल हुआ जिसमें इसके पुरोधाओं का बड़ा हाथ रहा है। इसे कई विद्वान निम्न वर्ग का हथियार भी मानते हैं। हिंदी लघुकथा के समकालीन परिदृश्य में विभिन्न प्रदेशों, राज्यों और यहाँ तक कि देशों के रचनाकार संलग्न दृष्टिगोचर हो रहे हैं। ऐसी विशिष्ट कथा विधा में कमल चोपड़ा जैसे समर्पक, प्रतिबद्ध और विशिष्ट लघुकथाकार के योगदान को जानना, समझना और समझाना प्रस्तुत शोध आलेख का उद्देश्य है।
बीज शब्द : कमल चोपड़ा, लघुकथा, स्त्री विमर्श, बालमजदूरी, वृद्ध विमर्श।
शोध आलेख
हिंदी लघुकथा के उद्भव को लेकर लघुकथा समीक्षकों के दो खेमें स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। परंपरावादी आलोचक वैदिक युग की उपदेशात्मक, बोधात्मक और लोककथाओं की विकासात्मकता से इसका उत्स मानते रहे हैं जबकि आधुनिक आलोचकों ने इसे सर्वथा नवीन विधा मानते और मनवाते हुए सातवें दशक से उद्भूत माना। चाहे जो हो लेकिन इतना तो निश्चित है कि हिंदी लघुकथा ने हिंदी साहित्य की कक्षा को समृद्ध ही किया है। लघुकथा है तो कथा – साहित्य की ही विधा लेकिन कहानी की उपविधा नहीं है। इस संदर्भ में जगदीश कश्यप जी का कहना था कि “लघुकथा कहानी नहीं है परंतु इसका सीधा संबंध कहानी से उतना ही है जितना एकांकी का नाटक से है; लघुकथा कविता कहानी नहीं है, परंतु कविता की तीव्र संवेदना इसमें निहित है; लघुकथा एकांकी नहीं है, लेकिन इसके संवाद कथानक का विस्तार करके (कम शब्द संख्या होने के कारण) इसकी संप्रेषणीयता बढ़ाते हैं, लघुकथा रेखाचित्र नहीं है, परंतु इसमें पात्र की विवशता में कमजोरी और असफल पक्ष को भी उद्घाटित किया जाता है।”1 यहाँ एक तो लघुकथा की अपनी प्रकृति भी स्पष्ट हो जाती है और दूसरे, लघुकथा का इतर साहित्यिक विधाओं से रूप भिन्नता भी ! हिंदी लघुकथा का वर्तमान परिदृश्य लघुकथा विधा के समूचे साहित्याकाश पर छाने का है। विभिन्न प्रदेशों से स्थापित लघुकथाकारों के साथ – साथ नई लेखनियाँ भी इस दिशा में सक्रीय दृष्टिगोचर होती हो रही हैं।
कमल चोपड़ा उन मूर्धन्य रचनाकारों में स्थान रखते हैं जिन्होंने लघुकथा विधा को लघुकथा लेखन, संपादन और पत्रिका प्रकाशन तीनों ही रूपों से पुष्पित और पल्लवित किया और कर रहे हैं। कमल जी केवल लघुकथाकार के रूप में ही नहीं अपितु कहानीकार और और बाल उपन्यासकार के रूप में भी ख्यातिप्राप्त हैं। सन १९७५ से इन्होंने लघुकथा लेखन का श्रीगणेश किया जो आज तक बदस्तूर जारी है। इस दृष्टि से देखा जाए तो कमल जी वरिष्ठ लघुकथाकार हैं और इन्होंने हिंदी लघुकथा का वह स्वर्णिम लघुकथा काल भी देखा है जिसमें रमेश बत्रा, जगदीश कश्यप जैसे मूर्धन्य लघुकथाकार इस विधा की स्थापना और विकास में अपने को पूरी तरह से झोंक चुके थे। अभिप्राय – 1990, फंगस – 1997, अन्यथा – 2001, अनर्थ – 2015, अकथ – 2018, कल की शक्ल – 2022 आदि लघुकथा संग्रहों में इनकी लघुकथा लेखन यात्रा का मानचित्र भी विकसित होता गया। लघुकथा के शिल्प और कथ्य को निखारने और सँवारने में इनकी भूमिका निश्चित ही महत्वपूर्ण है। एक प्रतिबद्ध रचनाकार के रूप में कमल चोपड़ा बराबर समादृत हैं।
भूमंडलीकरण के इस दौर में हमने जितनी प्रगति की है या कि करने का दंभ भरते हैं स्थितियाँ और वास्तविकता उससे कोसों भिन्न ही नजर आती हैं। आज सबसे अधिक विसंगतियाँ धर्म और राजनीति में ही देखी जा सकती हैं। सांप्रदायिकता और दंगों – दहशत की आँच, जाति – धर्मों का दलदल और मानवीयता के लोप से समूचा विश्व ही ग्रस्त नजर आ रहा है। सांप्रदायिकता का ज़हर आज समूची समाज रचना में अंतर्भुक्त होकर अपने डैने पसार चुका है। कमल जी की लघुकथाओं का अधिकांश भाग येन – केन प्रकारेण सांप्रदायिकता से जुड़ा हुआ है। सतीश दुबे इनकी लघुकथाओं के विषय में लिखते हैं “कमल चोपड़ा सांप्रदायिकता के नारकीय कुंड में सामाजिक सौहार्द्र की स्वर्गिक आहुति संपन्न करते मिलते हैं। यही कमल चोपड़ा की लघुकथाओं का उत्स है।”2
इस क्रम में कमल जी की शताधिक लघुकथाएँ रखी जा सकती हैं। यथा – ‘फुहार’, ‘उल्टा आप’, ‘धर्म के अनुसार’, ‘बताया गया रास्ता’, ‘आपकी बारी’, ‘अपने मजहब के अपने’, ‘भगवान का घर’, ‘इंसान का जन्म’, ‘गहरा विश्वास’, ‘दहशत का नाम’, ‘अन्न का मजहब’ आदि लघुकथाएँ दंगों – धर्म और सांप्रदायिकता से एन – केन प्रकारेण जुड़ी हुई हैं। ‘फुहार’ दो भिन्न धर्मों के झगड़े को लेकर बुनी गई है लेकिन उसका अंत हृदयपरिवर्तन और स्कारात्मता से ओत – प्रोत है। ‘धर्म के अनुसार’ धर्म के सच्चे रूप का अनुसरण करनेवाली लघुकथा है जिसमें एक रोड एक्सिडेंट में हिंदू आदमी द्वारा जख्मी हिंदू और मुस्लिम व्यक्तियों में से मुस्लिम व्यक्ति को अस्पताल ले जाने की है। यह लघुकथा मानवीयता के दो पहलुओं को लेकर चलती है। एक तो पुलिस की तहकीकात से बिना डरे एक्सिडेंट से एक व्यक्ति को जान बचाकर अस्पताल पहुँचाना और दूसरे किसी और धर्म के व्यक्ति को। पुलिस के पूछने पर कि हिंदू व्यक्ति को क्यों नहीं बचाया ? वह कहता है कि वह मुहल्ला हिंदू है उस व्यक्ति को तो कोई भी बचा लेगा लेकिन अगर ये पड़ा – पड़ा मर जाता तो हमारे धर्म के खाते में एक खून का धब्बा और बढ़ जाता।
‘बताया गया रास्ता’ केवल कमल चोपड़ा की ही नहीँ अपितु समूचे हिंदी लघुकथाकाश की भी सशक्त लघुकथा है। दंगे के कारण बच्ची स्कूल में फँस जाती है। मम्मी अस्पताल में भर्ती है और पिता भी वहीं है। पिता पहचानवाले शैफू रिक्शा वाले को बच्ची को लाने भेजते हैं। किंतु दंगों के कारण वह यहाँ कुआँ वहाँ खाई के दोराहे पर आकर खड़ा हो जाता है। दाईं ओर हिंदू मुहल्ला और बाईं ओर मुस्लिम। और वह जो कुछ सोचता है उसे ज्यों का त्यों रख देने का मोह संवरण नहीं हो पा रहा “खुदा न करे इस नन्हे फ़रिश्ते को कुछ हो। इतने जान पहचान वलोक को नकारकर मुझ पर भरोसा किया। अगर इसे कुछ हो गया तो मेरे साथ मेरा मजहब भी बदनाम हो सकता है। वैसे भी मुझे मजहब के दिखाए रास्ते पर चलना है। और उसने अपने रिक्शे को दाईं ओर मोड़ दिया।”3 ‘बांह – बेली’, ‘दीन धर्म सरीखी’ लघुकथाएँ दो भिन्न धर्मों के लोगों के आपसी प्रेम, पारस्परिक सौहार्द्र को व्यक्त करती हैं। उपर्युक्त लघुकथाओं के संदर्भ से कहना यही है कि कमल जी भले सांप्रदायिकता और उसमें लहूलुहान मानवीयता का दिग्दर्शन कराते हैं लेकिन उनमें एक सकारात्मक और जिम्मेदार रचनाकार की जीवटता प्रचुर है जो अपने समय की सारी नकारात्मकता से दो हाथ करके सकारात्मक पहलूओं को बिन – फटकारकर अलग निकाल लेते हैं।
अस्मितामूलक विमर्शों की दृष्टी से नवाँ दशक महत्वपूर्ण है। कहना न होगा कि स्त्री विमर्श इसी दौर में और अधिक तीव्रता से अवतरित हुआ था विभिन्न नवीन प्रश्नों को लेकर ! स्त्रियाँ प्रत्येक क्षेत्र में हाशिए पर धकेली गईं। भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में चूँकि सत्ता पुरुष के ही हाथों में है और जिसके हाथों में सत्ता होती है निर्यायक भी वही होता है इसलिए बहुत जायज है कि स्त्रियाँ काबिल होते हुए भी दरकिनार ही की जाएँ तो सत्ता पर आँच नहीं आने पाएगी। क्षेत्र चाहे ज्ञान का हो, दर्शन का, साधना का, साहित्य का, राजनीति का, घर-परिवार का स्त्रियाँ दो अंगुल प्रज्ञा वाली ही मानी जाती रहीं। शुक्र है कि कमल जी की लघुकथाओं में उनकी नायिकाएँ उपरोक्त सभी बातों का विरोध करने में सक्षम हैं। प्राय: आँचल में दूध और आँखों में पानी वाला बिंब ही आज भी रचते रहे तो स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन आने से रहा। कमल जी यह बखूबी जानते हैं। इनकी स्त्री पात्र किसी एक तबके की भी नहीं हैं अपितु समाज की विभिन्न सरणियों से आती हैं। स्त्री विमर्श की दृष्टी से इनकी लघुकथाओं में प्राय: दहेज प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या, स्त्रियों का दोयम दर्जा, भूमंडलीकरण और स्त्रियों के जटिलतर संबंध, सुरक्षितता का प्रश्न, बहनापे का जज़्बा देखे जा सकते हैं। इस संदर्भ में भी कमल जी की कईं लघुकथाएँ रखी जा सकती हैं। ‘ख्याल रखना’, ‘कैद बा मशक्कत’, ‘पत्नी’ तो ठेठ स्त्री विमर्श की लघुकथाएँ हैं। ‘कैद बा मशक्कत’ की नौकरानी का अपने मालिक को उत्तर देना काबिलेगौर है “जी मालिक ये चिकचिक मुझे भी पसंद नहीं। मैं तेरी बीवी नहीं हूँ जो इस तरह गाली – गलौज से बात करेगा। मुफ़्त में नहीं देते हो पैसा घर की बहू नहीं, जो थप्पड़ लात खा के भी पड़ी रहूँगी, वह भी दो रोटी के लिए। मुझे नहीं करना काम, ये पड़ी तेरी नौकरी।”4 यह स्त्री का अपना विद्रोह है। ‘छिपा हुआ दर्द’ न केवल कमल जी की अपितु वर्तमान समूचे हिंदी लघुकथा साहित्य की भी प्रतिनिधि लघुकथा है। विपन्नता में जीवन जी रहे, वृद्ध सास – ससुर से मिलने बेटा और बहू आए हैं। इसकी ख़बर उभयंतों को है और इसकी भी कि इनके माता – पिता इनकी आवभगत में कोई कमी न रह जाए इसलिए कितनी मशक्कत करत रहे हैं। लघुकथा की बहू का एक संवाद बड़ा महत्वपूर्ण है जिसमें वह कहती है कि “माँ जी, हम तो शहर से स्पेशली आपके हाथ की बनी मक्के की रोटी खाने आए हैं, साग अगर एक दिन का बासी हो तो अगले दिन और स्वादिष्ट लगता है पर हाँ उसमें घी – मक्खन मत डालना हमें डॉक्टर ने मना किया है और बाबूजी आप हमारे पास बैठिए न, हम तो आपकी तबियत का हालचाल पूछने आए हैं।”५ पितृसत्ता के विरोध के रूप में ‘हरगिज नहीं’ लघुकथा की नायिका का प्रतिकार भी उल्लेखनीय है जिसमें वह लूले – लँगड़े लड़के से शादी के लिए बिलकुल तैयार नहीं होती। कमल जी की लघुकथाओं की नायिकाओं में बहनापे के सूत्र भी जुड़ते देखे जा सकते हैं इस संदर्भ में कमल जी की ‘दुःख जोड़ेंगे’, ‘बिरादरी सरीखी’ लघुकथाएँ उल्लेखनीय हैं। इस आधार पर कह सकते हैं कि कमल जी की दृष्टी केवल समस्या पर दृष्टिपात करने तक सीमित नहीं अपितु समाधान पर भी केंद्रित रहती है।
समाज का एक महत्वपूर्ण आयाम जिस पर कल की बुनियाद टिकी हुई होती है वह बच्चे ही होते हैं। बालमजदूरी की समस्या हमारे देश में वर्षों से रही है। कठोर कानूनों के बनने के उपरांत भी इनकी स्थिति में कोई खास परिवर्तन दृष्टिगोचर नहीं होता। बालमजदूरी के दलदल में फँसकर बच्चों का बचपन तो नष्ट हो ही रहा है और सपनों का स्वाहा सो अलग ! विभिन्न कोणों से इस विषय को कमल जी ने उक्त समस्या को उठाया है। यदि बचपना ही न रहे तो क्या ख़ाक बच्चे। घर-परिवार की जिम्मेदारियाँ उठाकर बच्चों का समय से पहले ही वयस्क हो जाना गंभीर प्रश्न है। ‘परिपक्व’ इस दृष्टी से कमल जी की प्रतिनिधि रचना कही जा सकती है। जिसमेंबच्चे की उम्र मात्र तेरह वर्ष है लेकिन वह अपनी माँ को अपनी दीदी की शादी की चिंता न करने, पिता के लिए नए कपडे लेने, माँ और पिता के लिए दवाई की चिंता न करने की बातें कहता है। और लघुकथा का अंत कमल जी यों करते हैं “कल मुझे ढाबे से तनखा मिल जाएगी………..। माँ, तू चिंता मत किया कर मैं बच्चा थोड़े ही हूँ।”६
वर्तमान दौर में वृद्धों की स्थिति दयनीय और गति रुक सी गई प्रतीत होती है। बूढ़े बरगद के रूप में स्थापित हो जाना और टुकुर – टुकुर देखना इनकी नियति ! कमल चोपड़ा की लघुकथाओं के कथ्य का एक बड़ा भाग वृद्धों (स्त्री – पुरुष) दोनों से जुड़ा हुआ है। ‘इतनी दूर’, ‘हारना नहीं’, ‘ब्रेन स्ट्रोक’, ‘छत’, ‘अपना खून’ आदि लघुकथाएँ उपर्युक्त समस्याओं को ही वर्णित करती है, वहीं नई और पुरानी पीढ़ी का द्वंद्व भी ! वर्तमान दौर में संवेदनहीनता की कमी सर्वथा देखी और महसूस की जा सकती है। ‘इतनी दूर’ लघुकथा उस संवेदनहीनता को वर्णित करती है जिसमें नई पीढ़ी के लिए बाप एक फालतू सी चीज हो गया है। सोच पर हथौड़ा तो तब पड़ता है जब पाठक यह जान लेता है कि बेटे द्वारा पिता को अपनी ही बिल्डिंग के ग्राउंड फ्लोर पर रखा गया है तिसपर भी उनसे उसका मिलना कई – कई दिनों में ही हो पाता है। बेटा उस भूमंडलीकरणीय मानसिकता से ग्रस्त है जिसमें समूची दुनिया बड़ी पास आ गई है लेकिन हम सभी यह महसूस कर ही रहे हैं कि दुनिया भले ही कितनी ही सिमट गई हो लेकिन रिश्तों में ठंडापन और गर्माहट की कमी में भी इसी का हाथ है। दरवाजा अंदर से बंद था। पिता के फ्लोर पर लोगों की भीड़ जुटी देखकर वह जाता है। बेटी विदेश में रहती है। जब दो दिनों से फोन लगाकर भी पिता ने कोई उत्तर नहीं दिया तो वह घबराकर पड़ोसी को फोन करती है जाकर देखने की बात करती है। जब सभी के द्वारा बहुत प्रयत्न करने पर भी पिता दरवाजा नहीं खोलते तो दरवाजा तोड़ा जाता है। पिता कुर्सी पर अधमरे से पड़े दिखाई देते हैं। गूगल बाबा ने भले समस्याओं का समाधान चुटकी में हल करने का कार्य अपने हाथ में ले लिया हो और हमें सुविधाएँ पहुँचा रहा हो लेकिन वृद्धों की कमी और महत्व वह कभी पूरा नहीं कर सकता। ‘बेटे की इज्ज़त’ लघुकथा का पिता बेटे के होते हुए भी स्वयं काम कर अपना खर्च निकालने के लिए अभिशप्त है और वह भी इसलिए कि बिरादरी में बेटे की इज्ज़त बनी रहे।
हिंदी साहित्य का वर्तमान दौर समाज के उस वर्ग को जो बड़ी बर्बरता से मुख्यधारा से हाशिए पर धकेला जा रहा था उसे केंद्र में लाने का भी है। लगभग सभी विधाओं में आज हाशियाकृत समाज न केवल चित्रित हो रहा है अपितु बड़ी सशक्तता से अपने जीवन को उघाड़ भी रहा है। दलित, थर्ड जेंडर, स्त्री विमर्श, और अन्य निम्न वर्ग भी इसका प्रमाण हैं। आज सर्वहारा वर्ग और उसकी त्रासदियाँ साहित्य में अधिकाधिक स्थान पाने लगी हैं। पूँजीवादी वर्ग द्वारा इस सर्वहारा वर्ग के शोषण के उपाख्यान भी कमल चोपड़ा की लघुकथाओं में हैं। ‘चोर’, ‘नहीं’, ‘काटे कोई और’, ‘छिपे हुए’, ‘हिसाब’ जैसी लघुकथाएँ इस वर्ग की सच्चाईयाँ बयाँ करती हैं। ‘छिपे हुए’ मालिकों के द्वारा छिपकर रहने और श्रमिक वर्ग को आपस में लड़वाने से संबंधित है। ‘चोर’ और ‘हिसाब’ शीर्षक लघुकथाएँ एक तो बालश्रम और दूसरे पूँजीवादी वर्ग द्वारा इस वर्ग के शोषण की हकीकत लेकर उपस्थित है। ‘काटे कोई और’ का बालक अपने पिता से कहता है “बापू लोग तो कहते हैं जो बोता है वही काटता है, लेकिन बोता मजदूर है और काटकर खाता है लाला। बापू ऐसा क्यों नहीं होता, जो बोए वही काटे वही खाए।”७ और यहीं लघुकथा का अंत हो जाता है। समूची लघुकथा का सार तत्व इसी संवाद में निहित है।
उपरोक्त के अलावा कमल जी ने विभिन्न विसंगतियों, समस्याओं को भी अपनी लघुकथाओं में उठाया है। वर्तमान समय और समाज का प्रत्येक ही क्षण उनकी लघुकथाओं में अभिव्यक्त हुआ है क्योंकि लघुकथा क्षण विशेष की कथा होती है। शहर में अफसोस, कत्ल में शामिल, कुएं में छलाँग, सिर ऊँचा, प्लान, निशानी आदि लघुकथाएँ वर्तमान समाज में आ रहे बदलावों को लेकर उपस्थित हैं। जिसमें संवेदनहीनता (शहर में अफसोस), नशा और ड्रग्स माफिया (कत्ल में शामिल, कुएं में छलाँग) , भ्रष्ट राजनीतिक तंत्र (कत्ल में शामिल), धोखाधड़ी (निशानी), एबॉर्शन (प्लान), वहीं आयातित विचारों (लिव इन) जैसी आधुनिक समस्याओं को लेकर बुनी गई हैं।
कमल चोपड़ा की लघुकथाओं का शिल्प सरल, सुस्पष्ट और सपाट, संवेदनात्मक और सामयिक है। बिना लागलपेट के वें उस यथार्थ को वर्णित करत हैं जिसके साक्षी हम सभी हैं। इस दृष्टि से उनकी लघुकथाएँ अपने समाज से गहरे जुड़ी हुई है। निसंदेह कहा जा सकता है कि वें युगबोध को लेकर चले हैं। वर्णन – विश्लेषण की प्रधानता और संप्रेषणीयता का गुण उनकी लघुकथाओं की प्रमुख विशेषताएँ हैं। भाषा की सीधी – सरलता, आँचलिकता, संकेतात्मकता भी उल्लेखनीय है जो उनके हृदयस्थ भावों को ज्यों का त्यों अभिव्यक्त कर देती है।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि विवेच्य संग्रहों की लघुकथाएँ कमल चोपड़ा की गहरी सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि और एक स्वस्थ समाज के निर्माण की चेतना से संवलित है। इनकी लघुकथाओं के केंद्र में वर्तमान समाज और उसकी विसंगतियाँ अपने पूर्ण रूप में चित्रित हुई हैं। कमल चोपड़ा की दृष्टि के केंद्र में स्त्रियाँ, बच्चे और वृद्ध हमेशा रहते हैं। समसामयिक सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं का यथार्थ चित्र खींचने में कमल चोपड़ा सफल रहे है इसमें संदेह नहीं। वास्तविकता तो यह है कि कमल जी समाज की जटिल सामाजिक संरचना को जान – समझकर प्रत्येक समस्या की तह तक जाते हैं। वें एक प्रतिबद्ध रचनाकार के रूप में हिंदी साहित्याकाश में अपनी सकारात्मक जीवन दृष्टी और विशिष्ट सृजन, कथा – कौशल के लिए अवश्य ही साधुवाद के पात्र हैं।
संदर्भ सूची :
- शकुंतला किरण, २००९, हिंदी लघुकथा, साहित्य संस्थान, गाज़ियाबाद, पृष्ठ – ४३
- मधुदीप (संपादक), २०१६, पड़ाव और पड़ताल खंड २०, दिशा प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ – १६२
- कमल चोपड़ा, २०१८, अकथ, अयन प्रकाशन, महरौली नई दिल्ली, पृष्ठ – ८२
- उपरोक्त, पृष्ठ – ५१
- कमल चोपड़ा, २०१०, अन्यथा, अयन प्रकाशन, महरौली नई दिल्ली, पृष्ठ – ३१
- कमल चोपड़ा, २०२२, कल की शक्ल, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ – १२९
- कमल चोपड़ा, २०१८, अकथ, अयन प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ – १२७